श्र्धांजलि


 चहूँ ओर फैली हुई यह कैसी निराशा है,
आँसू बन  चक्षुओं से बहती हर एक  आशा है.

ऐसा संगीन नज़ारा देख कर आखें भी डबडबा गई,
एक आह भरी दिल ने और आँखों में नमी छा गई.

कोई कहता है कि यह परिणाम है अत्यधिक स्वार्थ का,
तो कोई मानता है महज ये गति है भू-तल के स्वाभाव का.

अरे कोई नाम टांको इसपर अब, टंगा खड़ा है इस पर है जो, है वो आदमी
पहले भूकंप हडकंप से झेला झोला, फिर चढ़ आया आक्रोशित सुनामी,

तुम तो बस करो, ओ परमाणु संयंत्रों, कोई राह तो जीने की दे दो
आग से तुमने झुलसा दी धरती, आसमान का दूषण तो रहने दो


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